
पाताल लोक विशेष रिपोर्ट
“अगर ज़हर को मिठास की शक्ल में परोसा जाए तो क्या वो कम खतरनाक हो जाएगा?”
सुवासरा। सीतामऊ अनुविभाग में स्थित 110 साल पुराने ‘शासकीय 52 क्वार्टर’ को लेकर एक बार फिर बड़ा खुलासा सामने आया है। मीडिया में प्रकाशित खबर के बाद तहसीलदार द्वारा की गई जांच ने प्रशासन की कार्यशैली पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
मंदसौर में मिठास अब डर पैदा करती है। शादी-ब्याह का सीज़न आते ही बाजारों में मिठाइयों की जैसे बाढ़ आ जाती है। रसगुल्ला, बर्फी, मावा के लड्डू… लेकिन ज़रा सोचिए — जब दूध का उत्पादन पहले से ही सीमित है, तो ये हजारों किलो मावा, मट्ठा और चक्का आखिर बन कैसे रहे हैं?
कौन है वो जादूगर जो बिना दूध के दूध से बने उत्पाद तैयार कर रहा है?
असलियत में ये कोई जादू नहीं, बल्कि मिलावट का महाजाल है, जिसमें जनता की सेहत फंस रही है, और फूड डिपार्टमेंट गहरी नींद में सोया हुआ है।
रतलाम, इंदौर, नीमच और आसपास के गांवों से जो मावा यात्री बसों और निजी गाड़ियों के जरिए मंदसौर पहुंचता है, उसकी न तो गुणवत्ता की जांच होती है, न कोई रजिस्ट्रेशन। जब किसी शादी या धार्मिक आयोजन में फूड पॉइजनिंग की खबर आती है, तब जाकर प्रशासन की नींद खुलती है।
कुछ साल पहले जब मावा की जांच हुई, तो कोल्ड स्टोरेज से क्विंटलों मावा बरामद हुआ, जिसे बाद में खाई में फेंक दिया गया। न एफआईआर दर्ज हुई, न किसी सप्लायर की पहचान उजागर हुई। ना ही ये पता चला कि वो मावा वहां आया कहां से।
क्यों? क्या मावा माफिया और अफसरों की कोई अघोषित ‘डील’ है?
फिक्सिंग का खेल: जांच के नाम पर तमाशा
शहर में हर मिठाई की दुकान पर, हर डेयरी पर, हर मावा सप्लायर के यहां फूड इंस्पेक्टर की जांच होनी चाहिए। लेकिन हकीकत यह है कि त्योहारों के समय सिर्फ दिखावे के लिए जांच होती है।
सूत्रों की मानें तो फूड ऑफिसर कमलेश जमरे और उनका नेटवर्क पहले से तय कर लेता है कि किसका सैंपल लिया जाएगा, और कौन सा पास कर दिया जाएगा।
कुछ चुनिंदा दुकानों को टारगेट कर बाकी दुकानदारों से ‘सेटलमेंट’ कर लिया जाता है।
रंग, रोग और ज़हर
मावा, श्रीखंड, पनीर… इन सभी में भारी मिलावट है। यही नहीं, मिठाइयों में जो रंग मिलाए जा रहे हैं, वो किसी धीमे ज़हर से कम नहीं हैं।
स्पेशलिस्ट्स का कहना है कि इन रंगों से लीवर, किडनी और कैंसर जैसी बीमारियां तक हो सकती हैं।
अब तो मामला यहाँ तक पहुँच गया है कि एक ही केमिकल कंपाउंड से पनीर और मावा दोनों बनाए जा रहे हैं।
: बच्चों को परोसा जा रहा है धीमा ज़हर
“बड़े मिलावट से बीमार हो रहे हैं, लेकिन छोटे तो सीधे ज़हर खा रहे हैं…”
अब बात करते हैं उन खाद्य पदार्थों की जो बच्चों को सबसे ज़्यादा लुभाते हैं—कुरकुरे, चिप्स, मोटू-पतलू वाले पाउच, और रंग-बिरंगे टॉफी जैसे दिखने वाले जहर।
इन प्रोडक्ट्स में ना मैन्युफैक्चरर का नाम है, ना एक्सपायरी डेट, ना कोई गुणवत्ता मापदंड। घटिया तेल, रसायन और सस्ते फ्लेवर से बनाए गए ये स्नैक्स शहर की झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर स्कूल के बाहर तक धड़ल्ले से बिक रहे हैं।
ये मिनी फैक्ट्रियां सिर्फ बच्चों की सेहत से नहीं, बल्कि देश के कानून और टैक्स सिस्टम से भी खिलवाड़ कर रही हैं।
GST की चोरी, मिलावटी सामग्री और बिना रजिस्ट्रेशन के चल रहे उत्पादन केंद्र — ये सभी प्रशासन की जानकारी में होते हुए भी चल रहे हैं।
ठंडी पड़ चुकी है “शुद्ध के लिए युद्ध”
कभी जो ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ जैसी मुहिमें पूरे प्रदेश में चली थीं, आज वो नोटिस बोर्ड और सरकारी फाइलों तक सिमट कर रह गई हैं।
आज भी जब जांच होती है, तब तक बाज़ार पहले से ही नकली माल से भर चुका होता है।
पाताल लोक का सवाल:
- क्या प्रशासन की आंखें सिर्फ हादसों के बाद ही खुलती हैं?
- क्या स्वास्थ्य से बड़ा कोई और सौदा है?
- क्या फूड विभाग का काम सिर्फ काग़ज़ी पंचनामों तक सीमित रह गया है?
- क्या हम और आप अब भी खामोश रहेंगे, या इस ज़हर के खिलाफ आवाज़ उठाएंगे?
यह रिपोर्ट यहीं खत्म नहीं होती… ये तो बस शुरुआत है।
अगली कड़ी में हम बताएंगे कि किस तरह स्कूल कैंटीन से लेकर अस्पतालों तक मिलावट का सामान परोसा जा रहा है, और कैसे इसमें शामिल हैं कुछ सफेदपोश चेहरे…