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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षिक योग्यता को लेकर लंबे समय से विवाद चला आ रहा है। यह बहस तब तेज हुई जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री की डिग्री की सत्यता को लेकर सवाल उठाए। मामला अदालतों तक पहुंचा और इस पर कई कानूनी और राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ सामने आईं।
pmo degree विवाद की शुरुआत और राजनीतिक बहस
यह विवाद 2016 में तब शुरू हुआ जब अरविंद केजरीवाल ने सूचना का अधिकार (RTI) के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षिक डिग्री की जानकारी मांगी। इसके जवाब में गुजरात विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय ने उनकी डिग्री की प्रतियां सार्वजनिक कीं, जिसमें उन्हें गुजरात विश्वविद्यालय से 1983 में मास्टर डिग्री प्राप्त करने की बात कही गई थी। हालाँकि, केजरीवाल और अन्य विपक्षी नेताओं ने इन प्रमाणपत्रों की प्रमाणिकता पर सवाल उठाए।
अदालत में मामला
केजरीवाल की मांग पर गुजरात हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई, जिसमें कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) को मोदी की डिग्री का विवरण साझा करने की आवश्यकता नहीं है। कोर्ट ने 10000 रुपये का जुर्माना भी लगाया, यह कहते हुए कि यह जानकारी पहले से ही सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध है।
अदालत का रुख और पारदर्शिता का सवाल
गुजरात हाईकोर्ट के इस फैसले को लेकर कई सवाल उठे। क्या सार्वजनिक पद पर बैठे किसी व्यक्ति की डिग्री से जुड़ी जानकारी जनता के लिए उपलब्ध होनी चाहिए? अदालत ने यह स्पष्ट किया कि प्रधानमंत्री जैसे उच्च पद पर बैठे व्यक्ति की योग्यता पर सवाल उठाने के लिए ठोस आधार होने चाहिए, केवल राजनीतिक कारणों से नहीं।
अमित शाह द्वारा डिग्री दिखाना
2016 में, जब यह विवाद अपने चरम पर था, तब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में नरेंद्र मोदी की डिग्री को सार्वजनिक रूप से दिखाया। उन्होंने प्रमाणपत्र प्रस्तुत करते हुए कहा कि यह विवाद बेबुनियाद है और विपक्षी दल केवल राजनीतिक लाभ के लिए इसे उठा रहे हैं। हालाँकि, कुछ लोगों ने इसमें दर्ज विवरणों पर सवाल उठाया, खासकर इस तथ्य पर कि दिल्ली विश्वविद्यालय की डिग्री में “Entire Political Science” (पूरा राजनीतिक विज्ञान) लिखा हुआ था, जो आमतौर पर पारंपरिक डिग्री प्रमाणपत्रों में नहीं देखा जाता।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ
बीजेपी ने इस विवाद को विपक्ष की निराधार राजनीति करार दिया और कहा कि यह प्रधानमंत्री की छवि को धूमिल करने की कोशिश है। वहीं, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों ने इसे लोकतंत्र और पारदर्शिता से जुड़ा मुद्दा बताया।दिलचस्प बात यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी को कई विश्वविद्यालयों से मानद डॉक्टरेट की उपाधि (डॉ. डिग्री) प्रदान करने का प्रस्ताव मिला, लेकिन उन्होंने अब तक इसे स्वीकार नहीं किया है। यह सवाल उठता है कि क्या वे इसे विनम्रता के कारण ठुकराते हैं या फिर इसके पीछे कोई और कारण है?