प्रेमचंद के कथा-साहित्य में साम्प्रदायिक सद्भाव
लेखक- कैलाश जोशी
महान कथाकार, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के नाम और उनके काम से हर कोई परिचित है । उनका साहित्य हिन्दी ही नहीं विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर है। प्रेमचंद का कथा साहित्य भारतीय परिवेश का सामाजिक एवं सांस्कृतिक दस्तावेज है । प्रेमचंद उस कालखण्ड से आते हैं जहाँ एक ओर भारतीय समाज परतन्त्रता की पीड़ा भोग रहा था वहीं दूसरी ओर समाज बहुसंख्य असमानताओं, रूढिवादी संस्कारों, अंधविश्वासों से जूझ रहा था । ऐसे समय में प्रेमचंद आगे आकर लोगों के दुःख-दर्द की एक मजबूत आवाज बनकर उभरे । उन्होने इस संघर्ष को अपने लेखन के माध्यम से वैचारिक धार दी । संघर्ष के इस यथार्थ को प्रेमचंद ने स्वयं जीया और भोगा।
प्रेमचंद ने जब लेखन कार्य आरंभ किया, उस समय उनके साथ ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी। उस समय दुर्गाप्रसाद खत्री के अय्यारी और जासूसी किस्सों का लेखन हो रहा था । अलबत्ता बांग्ला साहित्य विचार और लेखन के स्तर पर कहीं आगे था। उस समय बंकिमचंदऔर शरतचंद और इनके जैसे बांग्ला साहित्यकार थे जो साहित्य को सार्थकता प्रदान कर रहे थे। तत्कालीन सामाजिक संरचना की विषमताओं और विद्रूपताओं ने निश्चित ही प्रेमचंद को सच्चा और सार्थक लिखने को प्रेरित किया। प्रेमचंद के पूर्व कथा साहित्य का एकमात्र उद्देश्य मनोरंजन और अद्भुत रस की तृप्ति था । कविता भी व्यक्तिवाद के रंग में रंगी थी।
प्रेमचंद साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं। प्रेमचंद की मान्यता है कि साहित्य का जो भी रूप या विधा हो, उसका उद्देश्य हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या होना चाहिए । इस दृष्टि से उन्होंने कथा साहित्य को मानवीय सरोकारों से जोड़ कर साहित्य में सत्य को स्थापित किया । प्रेमचंद साहित्य की वैचारिक यात्रा आदर्श से यथार्थ की और उन्मुख है ।
प्रेमचंद के लेखन काल में साम्प्रदायिक ताकतें न केवल उभर रही थी बल्कि सामर्थ्यवान भी हो रही थी । ब्रिटिश उपनिवेशवाद इसे समाज में फैलाने का कुत्सित प्रयास कर रहा था । इसका दुष्परिणाम हमने मजहब के नाम पर देश के विभाजन के रूप में देखा । प्रेमचंद ने साम्प्रदायिक ताकतों को पहचाना और देशवासियों को भी इनके विरुध्द जागृत किया। उन्होंने “साम्प्रदायिकता और संस्कृति”शीर्षक लेख में अपनी चिंता प्रकट की थी, वे कहते हैं ” साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है उसे अपने असली रूप में निकलते हुए शायद लज्जा आती है इसलिये वह संस्कृति की खाल ओढ़कर आती है”।आज के समय में उनका यह कथन कितना सटीक है-” मेरी राय है,जनता स्वयं अपना भला बुरा निर्णय करे।यहॉं तो लोगों को लीडरी की पड़ी रहती है तब भला वे कैसे जनता के हित की बात सोचें।हिन्दू मुसलमान की लड़ाई में तो ये अपनी लीडरी चमकाते हैं”। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में कई मुद्दे जो समाज को धर्म और मजहब के आधार पर खण्ड-खण्ड कर रहे थे । धार्मिक कट्टरता और उससे उपजी संकीर्णता तथा परस्पर वैमनस्य की भावना प्रेमचंद के लिए चुनौती और चिंता का सबब रही ।
साम्प्रदायिक सद्भाव के कहानीकार के रूप में प्रेमचंद निश्चय ही बेमिसाल हैं । वे ऐसे हिन्दू और मुसलमान पात्रों का निर्माण करते हैं जिनमें असाधारण धार्मिक सहिष्णुता होती है । “मंदिर और मस्जिद”कहानी में चौधरी इतरअली एक उच्चवर्गीय जागीरदार पात्र है जो न तो मुसलमानों द्वारा हिन्दू-मंदिर पर हमले को बर्दाश्त करते हैंऔर न ही हिन्दुओं द्वारा मस्जिद पर किए गए आक्रमण को । वे मानते हैं कि किसी के धर्म की अवमानना करने से बड़ा और कोई गुनाह नहीं है । इसका मूल्य उन्हें अपने दामाद और एक सेवक की मृत्यु के रूप में चुकाना पड़ता है । “मुक्तिधन” कहानी में लाला दाऊदयाल के प्रति रहमान के मन में जो भाव है, उसे प्रेमचंद प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- “रहमान को ऐसा मालूम हुआ कि उसके सामने कोई फरिश्ता बैठा हुआ है । मनुष्य उदार हो तो फरिश्ता है और नीच हो तो शैतान ये दोनों मानवी प्रवृत्तियों के ही नाम हैं।
“हिंसा परमो धर्म” साम्प्रदायिक हिंसा और पाशविकता का पर्दाफाश और सद्भाव को उजागर करने वाली एक उल्लेखनीय कहानी है । इस कहानी का केन्द्रीय पात्र एक सीधा-सादा व्यक्ति है जो सेवाधर्म का पुजारी है । सबकी सेवा करना ही वह अपना एकमात्र कर्तव्य समझता है । उसके लिए हिन्दू-मुसलमान में कोई फर्क नहीं । “पंच परमेश्वर” कहानी में ग्रामीण लोकतंत्र में पंचायत के महत्व को स्थापित करते हैंऔर हिन्दू तथा मुस्लिम पंच दोनों ही न्याय का साथ देते हैं। प्रेमचंद की एक महत्वपूर्ण कहानी है “जिहाद” इस कहानी में प्रेमचंद ने बिना किसी झिझक के हिन्दू-मुसलमान जीवन में प्रवेश किया और कहानी ऐसे कह दी है मानो भोगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति कर रहे हों।
प्रेमचंद यदि आज के हालात देखते तो शायद अवसाद में चले जाते । उन्हें संस्कृति राजनीतिक स्वार्थ सिध्दि के लिए इस्तेमाल होने वाला महज एक साधन लगती है । उनके अनुसार यही तथाकथित संस्कृति साम्प्रदायिकता को भी अपने स्वार्थ पूरे करने का अवसर देती है । प्रेमचंद का कथा साहित्य जितना समकालीन परिस्थितियों पर खरा उतरता है उतना ही बहुत हद तक आज भी दिखाई देता है प्रेमचंद आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने अपने दौर में रहे बल्कि मौजूदा दौर में वे और अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं।

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